" काश मैं भी हो पता नीलकंठ "
" काश मैं भी हो पता नीलकंठ " |
कोशिश कर कभी सुनना विरानो के गीत , तन्हाई की सिसकियां भी होंगी ऐ अनजाने मीत ! खामोशी का संगीत जब भी आप गुनगुनायेंगे , लय की लरज़ में मुझे ही अकेला खडा पायेगे ! अपनी हर हर नज्म में ,कर्ण की रुसवाई को जीता हुआ मुझे ही पायेंगें ,भीष्म की तन्हाईयों का विष पीता हुआ! घायल रूहों का कारवां लिए,काँधे पे उठाये उम्मीदों का सलीब ; सत्य-आग्रही गाँधी मैं हुआ नही, ,कहाँ से लाता ईसा सा नसीब !! इस धरा की सारी रुसवाई : तनहाई का विष मैं पी जाता : जी जाता : मैं भी होता अगर नीलकंठ , हो पाता मैं भी काश नीलकंठ !! हो पाता मैं भी काश नीलकंठ !! मैं भी काश नीलकंठ!! मैं भी नीलकंठ !!
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पूर्व प्रकाशित कविता आप के समक्ष कुछ संशोधनों के साथ पुनः प्रस्तुत है,पुरानी हटा दी गई है
2 टिप्पणियाँ:
जिंदगी ज़हर के घूंट तो अक्सर पिलाती रहती है पर नीलकंठ हो जाना कहाँ संभव होता है ।
अपनी हर हर नज्म में ,कर्ण की रुसवाई को जीता हुआ
मुझे ही पायेंगें ,भीष्म की तन्हाईयों का विष पीता हुआ!
आपकी इन पंक्तियों का ताप उत्कृष्ट श्रेणी का हैं, झकझोर दिया इसने..
अत्युत्तम..
लगता है आप 'नीलकंठ' ही हैं !
स्वप्न मंजूषा 'अदा'
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