'' इसी लिए तो नीलकंठ नहीं .....''
निराशाओं के हलाहल-सागर मध्य से , असफलताओं का बोझ ले, पुनः-पुनः संघर्ष करते गुज़रना, नीलकंठ होने की मात्र अनुभूति ही दे पाता है , और हो बाध्य तभी हम , स्वीकार पाते हैं 'माँ फलेषु कदचिना ' || हाय रे फ़िर भी हम नीलकंठ हो पाते , इन्सां हैं हम चुभती है, असफलताओं की फांस ; कभी-कभी , रिश्ते हमारे बना इन्ही का नश्तर हैं चुभाते, इस पीड़ा संग राग-द्वेष निर्लिप्त नहीं हम , इसी लिए तो नीलकंठ नही हो पाते | नीलकंठ नही हो पाते||
|
1 टिप्पणियाँ:
आपकी ये रचना काफी होंसला और प्रेरित करती है सकारत्मक सोच के साथ लिखी बेहतरीन रचना......
एक टिप्पणी भेजें