बुधवार, 19 अगस्त 2009

'' बदरा क्यूँ वर्षा लायें ? ? ? ''


"प्रकृति के अनगढ़ जंगल हमने हैं मेंटे"

प्रकृति के अनगढ़ जंगल हमने हैं मेंटे,
पहले भिन्न भिन्न वृक्ष उन्हें लुभाते थे ,
देख झूमते प्राकृतिक वनों
और मयूर-यूथों का नृत्य ,

समझ उसे आमन्त्रण हो मंत्र मुग्ध ,
मेघा भी स्वयं नृत्य करने लग जाते ,
लय द्रुत होते ही बदरा छलक छलक जाते ,
सावन भादो में बदरा यूँ बरखा लाते थे ,

देख नृत्यान्त में छीजी गागर अपनी,
शेष जल भी यहीं उडेल ,
फिर चल पड़ती उनकी प्रति-यात्रा ,
पुनः पुनः जल लाने को ;

प्रकृति के अनगढ़ जंगल हमने मेंटे,
सुन्दर पंक्तिबद्ध बाग लगाये,
मयूर-जूथ नर्तक भी लुप्त हुये ,
विविधता के आकर्षण नष्ट हुए ,
रुके क्यों बदरा सरपट जो राह पाये ||




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मंगलवार, 21 जुलाई 2009

'' कुछ करना है कुछ कर जाना है '' ,





  " कुछ करना  है : : कुछ  करजाना  है "
'' कुछ करना है कुछ कर जाना है ''

हर दिन साठ घटी का ही होता है ,
कुछ करना है कुछ कर जाना है ,

और वक्त लाएं कहाँ से समझ नही आता ,
पल-छिन पल-छिन कर हर दिन है गुजर जाता,

अपने ही वक्त की झोली से कुछ वक्त चुराएँ ,
?---,,,,... ....,,,,।---?'

खुली आँखों में आओ कुछ स्वप्न सजाएँ ,
स्वप्न खुली आँखों के देखे ही सच होते हैं ,

सच क्या होंगे उनके जो सपनों में हैं सोते ,
सजग रहना साथी स्वप्न बीच न सो जाना ,

वक्त नही मिलता वक्त नही मिलता
मत कहना यारों ,
इसी साठ घड़ी के दिन में करने वाले
सब कर जाते हैं ,


हम जैसे जीते जी मुर्दा मौत के दिन ही हैं मर जाते ,
वे ही मर कर भी हो अमर हैं अनंत-काल जीते रह जातें |
|


********************* *************** *****************




इस रचना के साथ मैं प्राचीन परम्पराओं का पालन करत हुए एक '' समस्या - पूर्ति '' भी दे रहा हूँ ,देखें छठी पंक्ति प्रश्न वाचक चिन्ह लिए है एक पंक्ति लगभग तैयार है की उसका स्थान ले सके , परन्तु मेरी उस पंक्ति में कोई कमी सी होने की अनुभूति मुझे हो रही है अतः उसे रोक कर मैं आप लोगों [[ पाठकों ]] को ''पंक्ति पूर्ति का स्नेह आमंत्रण दे रहा हूँ यदि कोई '' मन - भावन '' पंक्ति मिली जिसके पक्ष में अधिकांश पाठक होंगे ,उसे वहां डाल दिया जाएगा चयन के समय , एक दो दिन में संतुष्ट होने के बाद मैं अपनी पंक्ति भी यहाँ दे दूंगा , वह यानि मैं भी प्रतिभागी रहूँगा |
हाँ आप उक्त पंक्तियों को आगे पीछे अर्थात ऊपर नीचे अदल-बदल भी सकते हैं





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रविवार, 19 जुलाई 2009

'' संवेदनाएं - 3 ''






संवेदनाएं -3
''मंत्रविद्ध ''

हाय सारी अनुभूतियाँ मंत्रविद्ध सी ,
निश्चल हो गयीं, स्वर-वाणी भी खोयी ;
भाव-सागर में जो मैं डूबा फिर उतराया,
संवेदनाओं की आंधी में मेरा शब्दकोष छितराया ||
********************************************
कलम है ,ख्याल है , बता ये किस के दिल का हाल है ?


घुमाई जो गर्दन,तेरी नज़र से निगाह मिली ,
अपना अक्स साफ नजर आया ,
आईना था कोई सामने ,
मेरी निगाहों का भरम कोई या तेरी आँखों का ज़लाल था ,
खुदा खैर करे क्या कमाल,तेरी आँखों में मेरे दिल का हाल था |




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शनिवार, 18 जुलाई 2009

संवेदनाएं-2










नीचे दी रचना श्री दिगंबर नासवा, जी की एक रचना से प्रेरित , इसनें भाव तो उनके ही हैं ,यहाँ तक की लगभग सभी शब्द भी उन्ही के हैं ,मैं उनकी सम्बंधित रचना पढ़ प्रशंसात्मक टिप्पणी लिखने का प्रयत्न कर रहा था कि मैं यह कर बैठा ,उनकी उस रचना के उतरार्ध को छंद बद्ध करने का प्रयत्न करने कि गुस्ताखी कर बैठा उनकी अनुमति से उनको समर्पित करते हुए मैं इसे कबीरा पर प्रकाशित कर रहा हूँ | पाठक उनके ब्लॉग '' स्वप्न मेरे '' पर '' अनबुझी प्यास'' अवश्य पढ़ें


जैसे सहयात्री हो नीले सागर का ,
कोसों कोस साथ चले ये रेत-समुन्दर भी ,

तोड़ तट के हर बंधन उन्मुक्त सागर लहरें ,
करती उदघोष और नर्तन जब आतीं हैं '

ले आगोश हर रेती- कण की प्यास बुझाती हैं ,
सागर को अपनी छाया देते नीलाभ गगन पर,

ऐसे ही क्षण इन्द्रधनुषी रंग बिखर जातें है ,
पर प्यास अनन्त अतः मिलन दोहराए जाते हैं||
     ***********************************************************************
हाँ यह मेरी है ,प्रकाशन के पूर्व जरासी चूक से प्रथम अक्षर गायब होगया पता नही क्याथा ,कभी याद आया तो संशोधित कर दूंगा ,कम्प्यूटर फोर्मेट करते समय संकलन ही उड़ गया
संवेदना


??? ; संवेदना है /
मौन : सांत्वना है /
स्पर्श : सुकूं है /
शब्द : रुदन है =
??? : आँसू हैं /
मुस्कान : इबादत है /
हँसी : समर्पण है/
मिलन : ब्रह्म है //














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गुरुवार, 9 जुलाई 2009

" मेरे शब्दों की पूंजी तेरे पास होगी ,"




" अपना क्या "


अपना क्या
' ज़िन्दगी ',की शाम हुयी
उम्र यूँ ही तमाम हुयी ,
ज्यूँ सूरज डूबेगा
त्यों ही रूह उसके नाम हुयी,
मुक्त हुआ मैं इस एकान्तिक अभिशाप से ,
पर रखना यकीं फिर आऊंगा ,
रूप बदल जायेगा ?
पहचान पाओगी ?
तब तुम्हे कोई
इन्द्रधनुषी गीत सुनाऊंगा ,
आऊंगा और शब्दों की सृष्टि
पुनः पुनः रचाऊंगा,
मेरे शब्दों की पूंजी तेरे पास होगी ,
जब मांगू दे देना वरना ,
फिर से अभिशप्त हो जाऊंगा !!!फिर से अभिशप्त हो जाऊंगा




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बुधवार, 8 जुलाई 2009

" इन्द्रधनुषी पुल "






एक चितेरा

विमी जी

एक चितेरा कभी मुझे भी मिला था,
बचपन में बनाता हुआ इन्द्रधनुषी पुल ,

मैंने उससे पूछा भी था ,
यह क्या करते हो ,

वह बोला भगवान के घर ,
जाने को पुल बनाता हूँ

मैंने फ़िर पूछा था ,
लेमन - चूस खाओगे ,

तब चाकलेट नहीं मिलते थे ,
यही मिलता था एक पैसे के दस ,
पर मुझे ऐसे ऐसे दो पुल बना कर दे दो ।

पूछा गया - क्या करोगे
उत्तर -भगवन से मिलाने जाउगा
प्रश्न - क्यों ?
कहूँगा सदगुर दद्दा को वापस भेजो |
पर दो क्यों ?
एक जाने एक वापस आने के लिए!!

{ आप के लिए }




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" सुनो ध्यान लगाय जो रहा ''बताऊँ'',"



"हाय-बताऊँ "

कहत कबीरा सुनो भाई साधो ,
छोड़ कमंडल लकुटिया माला ,
सुनो ध्यान लगाय जो रहा ''बताऊँ'',
दरबारे अकबरी रहा बैठा -ठाला,
मुग़ल--आज़म चढ़ तख्त बैठल उदास ,
भूला रहे सबै दरबारी लेहऊँ स्वास ,
बस अकबरै भरें -रह निस्वास ,
कहैं कहाँ हौ बीरबल जल्दी आवा पास,
जल्दी आवा पास और नाही कौनो आस,
वैद हकीम ज्ञानी ओझा गुनिया सबै हेराने,
दरबार परवेसे बीरबल तभई,
झुक-झुक किहिन हाकिम का अदब-जुहार ,
अबहिन तक रहेओ कहां लगी डपट फटकार,
लगी डपट फटकार ,फ़िर किहिन अदब-जुहार ,
बोले बीरबल हाल इह किहिस ''बताऊँ''हुजुर सरकार,
आज पालकी चढ़ हियाँ आयेन पहली बार ,
राहे न दीन्ही न लीन्ही कोऊ कै कई राम-जुहार ,
हमार पूछौ न बस कैसन हाल रहा हुजुर सरकार ?
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???
??
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[अन्तराल : अंतराल : अंतराल ]









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शनिवार, 4 जुलाई 2009

"प्रकृति के प्रति हमारी कृतज्ञता "




"प्रकृति के प्रति हमारी कृतज्ञता "


" प्रकृति-चक्र "

हमारी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का जन्म एवं परिपोषण भी मूलतः प्रकृति के सानिध्य में स्वयं प्रकृति द्वारा किया गया था |, आज हम आधुनिकता की दौड में विकास के नाम पर उसी प्रकृति से दूर भाग रहे हैं ,हम यह भूल रहें हैं कि विकास का वास्तविक भावार्थ ' प्रकृति के और निकट जाकर उससे सामंजस्य बैठाते हुए उन्नति करना होता है , इस प्रक्रिया में प्रकृति अपना सर्वश्रेष्ठ उत्पाद जो हमारे जीवन -यापन का मूल आधार है हमें देती है और बदले में हमसे हमारा निकृष्ट - उच्छिष्ट जो सीधे हामारे लिए अनुपयोगी है मांगती है | परन्तु यहाँ एक बन्ध या शर्त भी है , जब हम प्रकृति से उसका सब से उत्कृष्ट लेने के बाद भी उसे प्रसंस्कारित कर के ही उपभोग करते हैं उसे पछोराते, चालते और धोने के अलावा और भी कई प्रक्रियों से गुजरातें है किसी किसी का रूप भी बदलतें हैं , उसके पश्चात उसे आग पर पकाते हैं तब हमारे अनुसार वह हमारे उपभोग के योग्य हो पाता है उसी प्रकार प्रकृति भी चाहती है प्रकृति को हम उसका भोज्य -पदार्थ संस्कारित कर के दें क्यों कि विकास कि उलटी दिशा कि ओर जाने के दौड़ में हमने प्रकृति के प्राकृतिक प्रसंस्कारण एवं शुद्धिकरण उद्योग का विनाश कर डाला है |

और यही "प्रकृति के प्रति हमारी कृतज्ञता " होगी








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गुरुवार, 2 जुलाई 2009

"मेरा यक्ष-प्रश्न "






राम

क्यों आक्षेपित बार बार करते हो राम को ?
कुपुत्र कहलाते जो वन ना जाते
लेते न जो अग्नि-परीक्षा ,धर्म विरुद्ध तुम ही कहते !
धोबी के वचन को भरी सभा जो मर्म न देते ,
मात्र रघुवंशी चक्रवर्ती साम्राट राम तुम ही कहते |
क्या बार-बार के उन्ही आक्षेपों की है ग्लानि यह ?
जो अयाचित, राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हो
और भी आगे बढ,राम को भगवान के सिंहासन पर
बैठाते हो ||
कोई मेरे इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर भी दे पायेगा ,
क्या ? राम सी मर्यादा किसी और ने भी निभाई है?










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बुधवार, 1 जुलाई 2009

" सफर के बीच"




"सफर के बीच "


जब-जब थक जाईए ,

रूकइए सुस्ताइए ,

अपनी यादों की छाँव में ,

जरा सोचिये भी सफ़र में ,

क्या -क्या ले निकले थे,

उम्र के इस छोर आने तक ,

क्या खोया क्या पाया ,

इन्सानी रिश्तों को कौन

सहेज सका , कितना इनको,

मैं खुद भी जी पाया ,

गोया कि सफ़र अभी है बाकी|







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सोमवार, 29 जून 2009

" उमर वो बचपन की "




" उमर वो बचपन की "



अब क्या भूलूं क्या याद करूँ ,
लौटेगी उमर वो बचपन की ,
वक्त से चाहे जितनी विनती-फरियाद करूँ ||
माँ का गुस्सा , दीदी की मनुहार ,
दद्दा का इकरार , बाबूजी का प्यार,
भूले-भटके मिलते थे कभी-कभी ,
माँ नरम ,बाबूजी गरम ,दीदी चि़ड़चिड़,दद्दा के तेवर ,
ब्याज में भौजाई से तकरार जमा-पूंजी यही बचपन की,
वो सब रह-रह याद करूँ उम्र जो गुज़री पचपन की ||
अब क्या भूलूं क्या याद करूँ ,
लौटेगी उमर वो बचपन की ,
वक्त से चाहे जितनी विनती-फरियाद करूँ ||






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" रोमन[अंग्रेजी]मेंहिन्दी-उच्चारण टाइप करें: नागरी हिन्दी प्राप्त कर कॉपी-पेस्ट करें "

"रोमन[अंग्रेजी]मेंहिन्दी-उच्चारण टाइप करें:नागरी हिन्दी प्राप्त कर कॉपी-पेस्ट करें"

विजेट आपके ब्लॉग पर

TRASLATE

Translation

" उन्मुक्त हो जायें "



हर व्यक्ति अपने मन के ' गुबारों 'से घुट रहा है ,पढ़े लिखे लोगों के लिए ब्लॉग एक अच्छा माध्यम उपलब्ध है
और जब से इन्टरनेट सेवाएं सस्ती एवं सर्व - सुलभ हुई और मिडिया में सेलीब्रिटिज के ब्लोग्स का जिक्र होना शुरू हुआ यह क्रेज और बढा है हो सकता हैं कल हमें मालूम हो कि इंटरनेट की ओर लोगों को आकर्षित करने हेतु यह एक पब्लिसिटी का शोशा मात्र था |

हर एक मन कविमन होता है , हर एक के अन्दर एक कथाकार या किस्सागो छुपा होता है | हर व्यक्ति एक अच्छा समालोचक होता है \और सभी अपने इर्दगिर्द एक रहस्यात्मक आभा-मंडल देखना चाहतें हैं ||
एक व्यक्तिगत सवाल ? इमानदार जवाब चाहूँगा :- क्या आप सदैव अपनी इंटीलेक्चुएलटीज या गुरुडम लादे लादे थकते नहीं ?

क्या आप का मन कभी किसी भी व्यवस्था के लिए खीज कर नहीं कहता
............................................

"उतार फेंक अपने तन मन पे ओढे सारे भार ,
नीचे हो हरी धरती ,ऊपर अनंत नीला आकाश,
भर सीने में सुबू की महकती शबनमी हवाएं ,
जोर-जोर से चिल्लाएं " हे हो , हे हो ,हे हो ",
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
फिर सुनते रहें गूंज अनुगूँज और प्रति गूंज||"

मेरा तो करता है : और मैं कर भी डालता हूँ

इसे अवश्य पढें " धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर " और पढ़ कर अपनी शंकाएँ उठायें ;
इस के साथ कुछ और भी है पर है सारगर्भित
बीच में एक लम्बा अरसा अव्यवस्थित रहा , परिवार में और खानदान में कई मौतें देखीं कई दोस्त खो दिये ;बस किसी तरीके से सम्हलने की जद्दोजहद जारी है देखें :---
" शब्द नित्य है या अनित्य?? "
बताईयेगा कितना सफल रहा |
हाँ मेरे सवाल का ज़वाब यदि आप खुले - आम देना न चाहें तो मेरे इ -मेल पर दे सकते है , ,पर दें जरुर !!!!



कदमों के निशां

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