रविवार, 14 जून 2009

" काश मैं भी हो पता नीलकंठ "



" काश मैं भी हो पता नीलकंठ "



कोशिश कर कभी सुनना विरानो के गीत ,
तन्हाई की सिसकियां भी होंगी ऐ अनजाने मीत !

खामोशी का संगीत जब भी आप गुनगुनायेंगे ,
लय की लरज़ में मुझे ही अकेला खडा पायेगे !

अपनी हर हर नज्म में ,कर्ण की रुसवाई को जीता हुआ
मुझे ही पायेंगें ,भीष्म की तन्हाईयों का विष पीता हुआ!

घायल
रूहों का कारवां लिए,काँधे पे उठाये उम्मीदों का सलीब ;
सत्य-आग्रही गाँधी मैं हुआ नही, ,कहाँ से लाता ईसा सा नसीब !!

इस धरा की सारी रुसवाई : तनहाई का विष मैं पी जाता : जी जाता :
मैं भी होता अगर नीलकंठ ,
हो पाता मैं भी काश नीलकंठ !!
हो पाता मैं भी काश नीलकंठ !! मैं भी काश नीलकंठ!!
मैं भी नीलकंठ !!








यह
पूर्व प्रकाशित कविता आप के समक्ष कुछ संशोधनों के साथ पुनः प्रस्तुत है,पुरानी हटा दी गई है


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2 टिप्पणियाँ:

Asha Joglekar 15 जून 2009 को 1:28 am बजे  

जिंदगी ज़हर के घूंट तो अक्सर पिलाती रहती है पर नीलकंठ हो जाना कहाँ संभव होता है ।

स्वप्न मञ्जूषा 1 जुलाई 2009 को 5:56 pm बजे  

अपनी हर हर नज्म में ,कर्ण की रुसवाई को जीता हुआ
मुझे ही पायेंगें ,भीष्म की तन्हाईयों का विष पीता हुआ!

आपकी इन पंक्तियों का ताप उत्कृष्ट श्रेणी का हैं, झकझोर दिया इसने..
अत्युत्तम..
लगता है आप 'नीलकंठ' ही हैं !
स्वप्न मंजूषा 'अदा'

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" उन्मुक्त हो जायें "



हर व्यक्ति अपने मन के ' गुबारों 'से घुट रहा है ,पढ़े लिखे लोगों के लिए ब्लॉग एक अच्छा माध्यम उपलब्ध है
और जब से इन्टरनेट सेवाएं सस्ती एवं सर्व - सुलभ हुई और मिडिया में सेलीब्रिटिज के ब्लोग्स का जिक्र होना शुरू हुआ यह क्रेज और बढा है हो सकता हैं कल हमें मालूम हो कि इंटरनेट की ओर लोगों को आकर्षित करने हेतु यह एक पब्लिसिटी का शोशा मात्र था |

हर एक मन कविमन होता है , हर एक के अन्दर एक कथाकार या किस्सागो छुपा होता है | हर व्यक्ति एक अच्छा समालोचक होता है \और सभी अपने इर्दगिर्द एक रहस्यात्मक आभा-मंडल देखना चाहतें हैं ||
एक व्यक्तिगत सवाल ? इमानदार जवाब चाहूँगा :- क्या आप सदैव अपनी इंटीलेक्चुएलटीज या गुरुडम लादे लादे थकते नहीं ?

क्या आप का मन कभी किसी भी व्यवस्था के लिए खीज कर नहीं कहता
............................................

"उतार फेंक अपने तन मन पे ओढे सारे भार ,
नीचे हो हरी धरती ,ऊपर अनंत नीला आकाश,
भर सीने में सुबू की महकती शबनमी हवाएं ,
जोर-जोर से चिल्लाएं " हे हो , हे हो ,हे हो ",
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
फिर सुनते रहें गूंज अनुगूँज और प्रति गूंज||"

मेरा तो करता है : और मैं कर भी डालता हूँ

इसे अवश्य पढें " धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर " और पढ़ कर अपनी शंकाएँ उठायें ;
इस के साथ कुछ और भी है पर है सारगर्भित
बीच में एक लम्बा अरसा अव्यवस्थित रहा , परिवार में और खानदान में कई मौतें देखीं कई दोस्त खो दिये ;बस किसी तरीके से सम्हलने की जद्दोजहद जारी है देखें :---
" शब्द नित्य है या अनित्य?? "
बताईयेगा कितना सफल रहा |
हाँ मेरे सवाल का ज़वाब यदि आप खुले - आम देना न चाहें तो मेरे इ -मेल पर दे सकते है , ,पर दें जरुर !!!!



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