'' कुछ करना है कुछ कर जाना है '' ,
" कुछ करना है : : कुछ करजाना है " | ||
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कबीरा खड़ा बाज़ार में ,लिए लुकाठी हाथ जो फूँके घर आपणा, चले हमारे साथ|| निंदक नेणे राखि आँगन कुटी छवाये || रहिमन धागा प्रेम का , तोड़ो मत चटकाय : : टूटे फिर न जुड़े , जुड़े तो गाँठ पड़ जाए | |
" कुछ करना है : : कुछ करजाना है " | ||
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संवेदनाएं -3 ''मंत्रविद्ध '' हाय सारी अनुभूतियाँ मंत्रविद्ध सी , निश्चल हो गयीं, स्वर-वाणी भी खोयी ; भाव-सागर में जो मैं डूबा फिर न उतराया, संवेदनाओं की आंधी में मेरा शब्दकोष छितराया || ******************************************** कलम है ,ख्याल है , बता ये किस के दिल का हाल है ? घुमाई जो गर्दन,तेरी नज़र से निगाह मिली , अपना अक्स साफ नजर आया , आईना न था कोई सामने , मेरी निगाहों का भरम कोई या तेरी आँखों का ज़लाल था , खुदा खैर करे क्या कमाल,तेरी आँखों में मेरे दिल का हाल था | |
नीचे दी रचना श्री दिगंबर नासवा, जी की एक रचना से प्रेरित , इसनें भाव तो उनके ही हैं ,यहाँ तक की लगभग सभी शब्द भी उन्ही के हैं ,मैं उनकी सम्बंधित रचना पढ़ प्रशंसात्मक टिप्पणी लिखने का प्रयत्न कर रहा था कि मैं यह कर बैठा ,उनकी उस रचना के उतरार्ध को छंद बद्ध करने का प्रयत्न करने कि गुस्ताखी कर बैठा उनकी अनुमति से उनको समर्पित करते हुए मैं इसे कबीरा पर प्रकाशित कर रहा हूँ | पाठक उनके ब्लॉग '' स्वप्न मेरे '' पर '' अनबुझी प्यास'' अवश्य पढ़ें जैसे सहयात्री हो नीले सागर का , कोसों कोस साथ चले ये रेत-समुन्दर भी , तोड़ तट के हर बंधन उन्मुक्त सागर लहरें , करती उदघोष और नर्तन जब आतीं हैं ' ले आगोश हर रेती- कण की प्यास बुझाती हैं , सागर को अपनी छाया देते नीलाभ गगन पर, ऐसे ही क्षण इन्द्रधनुषी रंग बिखर जातें है , पर प्यास अनन्त अतः मिलन दोहराए जाते हैं|| *********************************************************************** हाँ यह मेरी है ,प्रकाशन के पूर्व जरासी चूक से प्रथम अक्षर गायब होगया पता नही क्याथा ,कभी याद आया तो संशोधित कर दूंगा ,कम्प्यूटर फोर्मेट करते समय संकलन ही उड़ गया संवेदना ??? ; संवेदना है / मौन : सांत्वना है / स्पर्श : सुकूं है / शब्द : रुदन है = ??? : आँसू हैं / मुस्कान : इबादत है / हँसी : समर्पण है/ मिलन : ब्रह्म है // |
" अपना क्या "
अपना क्या ' ज़िन्दगी ',की शाम हुयी उम्र यूँ ही तमाम हुयी , ज्यूँ सूरज डूबेगा त्यों ही रूह उसके नाम हुयी, मुक्त हुआ मैं इस एकान्तिक अभिशाप से , पर रखना यकीं फिर आऊंगा , रूप बदल जायेगा ? पहचान पाओगी ? तब तुम्हे कोई इन्द्रधनुषी गीत सुनाऊंगा , आऊंगा और शब्दों की सृष्टि पुनः पुनः रचाऊंगा, मेरे शब्दों की पूंजी तेरे पास होगी , जब मांगू दे देना वरना , फिर से अभिशप्त हो जाऊंगा !!!फिर से अभिशप्त हो जाऊंगा
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विमी जी एक चितेरा कभी मुझे भी मिला था, बचपन में बनाता हुआ इन्द्रधनुषी पुल , मैंने उससे पूछा भी था , यह क्या करते हो , वह बोला भगवान के घर , जाने को पुल बनाता हूँ मैंने फ़िर पूछा था , लेमन - चूस खाओगे , तब चाकलेट नहीं मिलते थे , यही मिलता था एक पैसे के दस , पर मुझे ऐसे ऐसे दो पुल बना कर दे दो । पूछा गया - क्या करोगे उत्तर -भगवन से मिलाने जाउगा प्रश्न - क्यों ? कहूँगा सदगुर दद्दा को वापस भेजो | पर दो क्यों ? एक जाने एक वापस आने के लिए!! { आप के लिए }
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"हाय-बताऊँ " कहत कबीरा सुनो भाई साधो , छोड़ कमंडल लकुटिया माला , सुनो ध्यान लगाय जो रहा ''बताऊँ'', दरबारे अकबरी रहा बैठा -ठाला, मुग़ल-ए-आज़म चढ़ तख्त बैठल उदास , भूला रहे सबै दरबारी लेहऊँ स्वास , बस अकबरै भरें -रह निस्वास , कहैं कहाँ हौ बीरबल जल्दी आवा पास, जल्दी आवा पास और नाही कौनो आस, वैद हकीम ज्ञानी ओझा गुनिया सबै हेराने, दरबार परवेसे बीरबल तभई, झुक-झुक किहिन हाकिम का अदब-जुहार , अबहिन तक रहेओ कहां लगी डपट फटकार, लगी डपट फटकार ,फ़िर किहिन अदब-जुहार , बोले बीरबल हाल इह किहिस ''बताऊँ''हुजुर सरकार, आज पालकी चढ़ हियाँ आयेन पहली बार , राहे न दीन्ही न लीन्ही कोऊ कै कई राम-जुहार , हमार पूछौ न बस कैसन हाल रहा हुजुर सरकार ? ???? ??? ?? ? [अन्तराल : अंतराल : अंतराल ] |
"प्रकृति के प्रति हमारी कृतज्ञता "
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राम क्यों आक्षेपित बार बार करते हो राम को ? कुपुत्र कहलाते जो वन ना जाते लेते न जो अग्नि-परीक्षा ,धर्म विरुद्ध तुम ही कहते ! धोबी के वचन को भरी सभा जो मर्म न देते , मात्र रघुवंशी चक्रवर्ती साम्राट राम तुम ही कहते | क्या बार-बार के उन्ही आक्षेपों की है ग्लानि यह ? जो अयाचित, राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हो और भी आगे बढ,राम को भगवान के सिंहासन पर बैठाते हो || कोई मेरे इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर भी दे पायेगा , क्या ? राम सी मर्यादा किसी और ने भी निभाई है?
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"सफर के बीच "
जब-जब थक जाईए , रूकइए सुस्ताइए , अपनी यादों की छाँव में , जरा सोचिये भी सफ़र में , क्या -क्या ले निकले थे, उम्र के इस छोर आने तक , क्या खोया क्या पाया , इन्सानी रिश्तों को कौन सहेज सका , कितना इनको, मैं खुद भी जी पाया , गोया कि सफ़र अभी है बाकी|
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"उतार फेंक अपने तन मन पे ओढे सारे भार ,
नीचे हो हरी धरती ,ऊपर अनंत नीला आकाश,
भर सीने में सुबू की महकती शबनमी हवाएं ,
जोर-जोर से चिल्लाएं " हे हो , हे हो ,हे हो ",
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फिर सुनते रहें गूंज अनुगूँज और प्रति गूंज||"
इसे अवश्य पढें " धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर " और पढ़ कर अपनी शंकाएँ उठायें ;इस के साथ कुछ और भी है पर है सारगर्भित
" शब्द नित्य है या अनित्य?? "बताईयेगा कितना सफल रहा |
जीवन की इस सँध्याबेला में,
समय के चौराहे पर खड़ा अकेला मैं,
ज़र्जर देह संग काँपते स्वर और अधर हैं,
राह कठिन और पग लड़खडा़ रहे,
वो दूर कहीं दूर पर आयु के झरोखे ,
मुझे बुला रहे ,मुझे बुला रहे ॥
बस विदा गान की रीत है बाकी , श्वासों की डोली में , यादें बन कर बैठीं दुल्हन ; सब मिल गाओ गीत विदा के अब प्राणों की यह बारात , जब चल पड़ी ,चल पड़ी, चल पड़ी ॥ | | है देखी वक्त की ये रीत निराली , पहले काटे न कटती थीं रातें , उगता न था सूरज भी जल्दी, पर चाँद छुपा जल्दी आई दुपहरी, समय न ठहरा गुजरा निष्ठुर मौन , जब प्रिय मिलन की रात चल पड़ी, चल पड़ी ,चल पड़ी,।। |
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