सोमवार, 27 अक्टूबर 2008
गुरुवार, 16 अक्टूबर 2008
" अपनी ज़िन्दगी : :अपनी धूप "
शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2008
अंतर्यात्री
यारो बनाओ मत मुझे मसीहा ,अंजाम मुझे मालूम है ;
हर मुल्क ओ दौरां में ,कत्ल होना ही गांधी का नसीब है ।।
हर दौर ए ईसा की तकदीर मुझे मालूम है ;
ख़ुद के कांधो पर उठाये फिरना ,अपना ही सलीब है ।।1।।
किस्मत है भटकना अब ,हर दौर ए मूसा की ;
अपनी रूह की परछाइयो का कारवां लिए।
जरूरी नही हर कारवां को ,अब कोह ए तूर कोई मिले: गर मिले भी लाजमी नही ,आतिशे नूर भी मिले ॥2॥
मत मांगना किसी दुख्तर ए हव्वा से ;
सीता सी अग्नि परीक्षा ,पाकीजगी के सुबूत में।
न सजा पाओगे अग्निकुंड , जी उठेगा यक्ष प्रश्न;
क्या ? राम सी मर्यादा किसी और ने भी निभाई है ॥3॥
महाभारत के सफर में ,यह बात नजर आयी है ;
क्या सहेगा कोई 'कर्ण ' की जिल्लतें औ रुसवाईयाँ ।
तन्हाईयों की "समर ",देना मत अब कभी दुहाईयाँ ;
दौर ए अदम में कौन जी सकेगा 'भीष्म" की तन्हाईयाँ ॥4॥