" सफर के बीच "
" ज़िन्दगी की नियति " === ="भटकन ~ थकन ~ मंजिल ~ चलना:सफर " |
'भटकन होगी लम्बी वक़्त की रहगुज़र भी , लम्बी मिलेगी जितनी ज़िन्दगी , भटकने:ढूँढने के खेल के रोमांस औ रोमांच में कब कैसे गुज़रा वक़्त ? खुद वक़्त ही नहीं जान पाता थकन जब-जब थक जाईए , रूकइए सुस्ताइए , अपनी यादों की छाँव में , जरा सोचिये भी , क्या -क्या ले कर थे निकले , उम्र के इस छोर आने तक , क्या खोया क्या पाया , रिश्तों को कौन सहेज सका , कितना , खुद मैं भी जी पाया , गोया कि सफ़र अभी है बाकी| |
2 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर कविता है. सच है वक्त कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता.
इतना लम्बा अन्तराल क्यों? आप थे कहां अभी तक?
उम्र के इस छोर आने तक ,
क्या खोया क्या पाया ,
रिश्तों को कौन
सहेज सका , कितना ,
खुद मैं भी जी पाया ,
गोया कि सफ़र अभी है बाकी|
बहुत सुन्दर.....
एक टिप्पणी भेजें