आंसू और तनहाई
आंसू और तनहाई |
याराँ वो तो बेवफा हुआ, गम में जो आँसू , आँखों से जुदा हुआ, ये रिश्ता हों , ना रुसवा, इसीलिएतो लोग, अकेले में ही रोते हैं || |
कबीरा खड़ा बाज़ार में ,लिए लुकाठी हाथ जो फूँके घर आपणा, चले हमारे साथ|| निंदक नेणे राखि आँगन कुटी छवाये || रहिमन धागा प्रेम का , तोड़ो मत चटकाय : : टूटे फिर न जुड़े , जुड़े तो गाँठ पड़ जाए | |
आंसू और तनहाई |
याराँ वो तो बेवफा हुआ, गम में जो आँसू , आँखों से जुदा हुआ, ये रिश्ता हों , ना रुसवा, इसीलिएतो लोग, अकेले में ही रोते हैं || |
" ज़िन्दगी की नियति " === ="भटकन ~ थकन ~ मंजिल ~ चलना:सफर " |
'भटकन होगी लम्बी वक़्त की रहगुज़र भी , लम्बी मिलेगी जितनी ज़िन्दगी , भटकने:ढूँढने के खेल के रोमांस औ रोमांच में कब कैसे गुज़रा वक़्त ? खुद वक़्त ही नहीं जान पाता थकन जब-जब थक जाईए , रूकइए सुस्ताइए , अपनी यादों की छाँव में , जरा सोचिये भी , क्या -क्या ले कर थे निकले , उम्र के इस छोर आने तक , क्या खोया क्या पाया , रिश्तों को कौन सहेज सका , कितना , खुद मैं भी जी पाया , गोया कि सफ़र अभी है बाकी| |
ज़िन्दगी
ढूँढ ले अपनी मंजिल कोई , यारा कर दे शुरू सफ़र अपना;
ज़िंदगी की इस राह-गुज़र पर, मिले कभी कई क़ाफिले होंगें
कभी शब-ए-बियाँबां बसर होगा, गुलज़ार वतन भी होंगें ;
गुल होंगे तो ख्वार भी होंगे धूप होगी तो छावं भी होगी ,
सपनों का शहर होगा ; ख्वाहिशों का म-क़बर होगा;
इसी ज़ुस्तजु-ए-मंजिल का नाम ही तो ज़िन्दगी है |
kabeeraa { म-क़बर=क़ब्रिस्तान, जुस्तजू= तलाश या खोज ,ख्वार=कांटे=दुःख,तक़लीफें, शब=रात }
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"उतार फेंक अपने तन मन पे ओढे सारे भार ,
नीचे हो हरी धरती ,ऊपर अनंत नीला आकाश,
भर सीने में सुबू की महकती शबनमी हवाएं ,
जोर-जोर से चिल्लाएं " हे हो , हे हो ,हे हो ",
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फिर सुनते रहें गूंज अनुगूँज और प्रति गूंज||"
इसे अवश्य पढें " धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर " और पढ़ कर अपनी शंकाएँ उठायें ;इस के साथ कुछ और भी है पर है सारगर्भित
" शब्द नित्य है या अनित्य?? "बताईयेगा कितना सफल रहा |
जीवन की इस सँध्याबेला में,
समय के चौराहे पर खड़ा अकेला मैं,
ज़र्जर देह संग काँपते स्वर और अधर हैं,
राह कठिन और पग लड़खडा़ रहे,
वो दूर कहीं दूर पर आयु के झरोखे ,
मुझे बुला रहे ,मुझे बुला रहे ॥
बस विदा गान की रीत है बाकी , श्वासों की डोली में , यादें बन कर बैठीं दुल्हन ; सब मिल गाओ गीत विदा के अब प्राणों की यह बारात , जब चल पड़ी ,चल पड़ी, चल पड़ी ॥ | | है देखी वक्त की ये रीत निराली , पहले काटे न कटती थीं रातें , उगता न था सूरज भी जल्दी, पर चाँद छुपा जल्दी आई दुपहरी, समय न ठहरा गुजरा निष्ठुर मौन , जब प्रिय मिलन की रात चल पड़ी, चल पड़ी ,चल पड़ी,।। |
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