मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
बुधवार, 19 अगस्त 2009
'' बदरा क्यूँ वर्षा लायें ? ? ? ''
"प्रकृति के अनगढ़ जंगल हमने हैं मेंटे" प्रकृति के अनगढ़ जंगल हमने हैं मेंटे, पहले भिन्न भिन्न वृक्ष उन्हें लुभाते थे , देख झूमते प्राकृतिक वनों और मयूर-यूथों का नृत्य , समझ उसे आमन्त्रण हो मंत्र मुग्ध , मेघा भी स्वयं नृत्य करने लग जाते , लय द्रुत होते ही बदरा छलक छलक जाते , सावन भादो में बदरा यूँ बरखा लाते थे , देख नृत्यान्त में छीजी गागर अपनी, शेष जल भी यहीं उडेल , फिर चल पड़ती उनकी प्रति-यात्रा , पुनः पुनः जल लाने को ; प्रकृति के अनगढ़ जंगल हमने मेंटे, सुन्दर पंक्तिबद्ध बाग लगाये, मयूर-जूथ नर्तक भी लुप्त हुये , विविधता के आकर्षण नष्ट हुए , रुके क्यों बदरा सरपट जो राह पाये || |
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'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा ::
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वन-बदरा-वर्षा
मंगलवार, 21 जुलाई 2009
'' कुछ करना है कुछ कर जाना है '' ,
" कुछ करना है : : कुछ करजाना है " | ||
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'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा ::
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5:12 am
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मर कर भी,
Geet-Kavita
रविवार, 19 जुलाई 2009
'' संवेदनाएं - 3 ''
संवेदनाएं -3 ''मंत्रविद्ध '' हाय सारी अनुभूतियाँ मंत्रविद्ध सी , निश्चल हो गयीं, स्वर-वाणी भी खोयी ; भाव-सागर में जो मैं डूबा फिर न उतराया, संवेदनाओं की आंधी में मेरा शब्दकोष छितराया || ******************************************** कलम है ,ख्याल है , बता ये किस के दिल का हाल है ? घुमाई जो गर्दन,तेरी नज़र से निगाह मिली , अपना अक्स साफ नजर आया , आईना न था कोई सामने , मेरी निगाहों का भरम कोई या तेरी आँखों का ज़लाल था , खुदा खैर करे क्या कमाल,तेरी आँखों में मेरे दिल का हाल था | |
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9:34 pm
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हाल-ए-दिल
शनिवार, 18 जुलाई 2009
संवेदनाएं-2
नीचे दी रचना श्री दिगंबर नासवा, जी की एक रचना से प्रेरित , इसनें भाव तो उनके ही हैं ,यहाँ तक की लगभग सभी शब्द भी उन्ही के हैं ,मैं उनकी सम्बंधित रचना पढ़ प्रशंसात्मक टिप्पणी लिखने का प्रयत्न कर रहा था कि मैं यह कर बैठा ,उनकी उस रचना के उतरार्ध को छंद बद्ध करने का प्रयत्न करने कि गुस्ताखी कर बैठा उनकी अनुमति से उनको समर्पित करते हुए मैं इसे कबीरा पर प्रकाशित कर रहा हूँ | पाठक उनके ब्लॉग '' स्वप्न मेरे '' पर '' अनबुझी प्यास'' अवश्य पढ़ें जैसे सहयात्री हो नीले सागर का , कोसों कोस साथ चले ये रेत-समुन्दर भी , तोड़ तट के हर बंधन उन्मुक्त सागर लहरें , करती उदघोष और नर्तन जब आतीं हैं ' ले आगोश हर रेती- कण की प्यास बुझाती हैं , सागर को अपनी छाया देते नीलाभ गगन पर, ऐसे ही क्षण इन्द्रधनुषी रंग बिखर जातें है , पर प्यास अनन्त अतः मिलन दोहराए जाते हैं|| *********************************************************************** हाँ यह मेरी है ,प्रकाशन के पूर्व जरासी चूक से प्रथम अक्षर गायब होगया पता नही क्याथा ,कभी याद आया तो संशोधित कर दूंगा ,कम्प्यूटर फोर्मेट करते समय संकलन ही उड़ गया संवेदना ??? ; संवेदना है / मौन : सांत्वना है / स्पर्श : सुकूं है / शब्द : रुदन है = ??? : आँसू हैं / मुस्कान : इबादत है / हँसी : समर्पण है/ मिलन : ब्रह्म है // |
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12:42 pm
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