"प्रकृति के प्रति हमारी कृतज्ञता "
"प्रकृति के प्रति हमारी कृतज्ञता "
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कबीरा खड़ा बाज़ार में ,लिए लुकाठी हाथ जो फूँके घर आपणा, चले हमारे साथ|| निंदक नेणे राखि आँगन कुटी छवाये || रहिमन धागा प्रेम का , तोड़ो मत चटकाय : : टूटे फिर न जुड़े , जुड़े तो गाँठ पड़ जाए | |
"प्रकृति के प्रति हमारी कृतज्ञता "
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"उतार फेंक अपने तन मन पे ओढे सारे भार ,
नीचे हो हरी धरती ,ऊपर अनंत नीला आकाश,
भर सीने में सुबू की महकती शबनमी हवाएं ,
जोर-जोर से चिल्लाएं " हे हो , हे हो ,हे हो ",
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फिर सुनते रहें गूंज अनुगूँज और प्रति गूंज||"
इसे अवश्य पढें " धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर " और पढ़ कर अपनी शंकाएँ उठायें ;इस के साथ कुछ और भी है पर है सारगर्भित
" शब्द नित्य है या अनित्य?? "बताईयेगा कितना सफल रहा |
जीवन की इस सँध्याबेला में,
समय के चौराहे पर खड़ा अकेला मैं,
ज़र्जर देह संग काँपते स्वर और अधर हैं,
राह कठिन और पग लड़खडा़ रहे,
वो दूर कहीं दूर पर आयु के झरोखे ,
मुझे बुला रहे ,मुझे बुला रहे ॥
बस विदा गान की रीत है बाकी , श्वासों की डोली में , यादें बन कर बैठीं दुल्हन ; सब मिल गाओ गीत विदा के अब प्राणों की यह बारात , जब चल पड़ी ,चल पड़ी, चल पड़ी ॥ | | है देखी वक्त की ये रीत निराली , पहले काटे न कटती थीं रातें , उगता न था सूरज भी जल्दी, पर चाँद छुपा जल्दी आई दुपहरी, समय न ठहरा गुजरा निष्ठुर मौन , जब प्रिय मिलन की रात चल पड़ी, चल पड़ी ,चल पड़ी,।। |
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5 टिप्पणियाँ:
बिलकुल सही कहा है आपने आज मानव खुद ही अपने लिये विनाश का कूँआँ खोद रहा है मगर कौन इसे समझाये आपका बहुत बहुत धन्यवाद्
सोलह आने सही, लेकिन मानता कौन है, जब अब तक नहीं सुधरे तो आगे का सुधरेंगे , अब जाने दीजिये सब कहबे कर रहे हैं की २०१२ में दुनिया का अंत हो रहा है, हम तो वोही आसरा में बैठे हैं, की कब जान छूटे ......
सबसे पहले तो मेरे ब्लाग पर आपके आने का अभिनन्दन, और मेरी रचनाओं को प्रोत्साहित करने के लिये आपका आभार् जिसकी वजह से मैं आपके इस सुन्दर से ब्लाग तक पहुंच सकी, आपने बिल्कुल सही कहा है इस प्रस्तुति के माध्यम से ।
अन्योनास्ति जी,
रचना पसन्द करने के लिये आप का धन्यवाद...
मैं कतई निराशावादी नहीं हूँ।आप जानते हैं मैं प्रसन्न वदन हूँ,हाँ कभी-कभी परेशान जरूर होता हूँ लेकिन अपने उस समय को भी मैं जाया नहीं होने देता बल्कि उस समय से कुछ ऐसी रचनाओं का प्रादुर्भाव हो जाता है जो सामान्य स्थिति में कभी संभव नहीं होता।मेरी बहुत सी रचनाएं इसी वजह से हर आम आदमी की अपनी बात लगती है क्योंकि वह सिर्फ़ सोचकर लिखी गयी नहीं है,वरन उसमें कुछ वास्तविकता भी है....[हाँ हर रोमांटिक रचना पर ये बात लागू नहीं होती;केवल कुछ पर ही].सच पूछिये तो मैं अपने कठिन दौर को अपने किसी रचना के लिये आया हुआ मान लेता हूँ और मैं गीत-ग़ज़ल गाते हुए अपना वह समय भी गुजार लेता हूँ...आपको कई ऐसी रचनाएं आगे भी मिलेंगी,जो ऐसे वक्त की धरोहर हैं और शायद ऐसा वक्त न आता तो ये रचनाएं भी नहीं होती........
आपने मुझे अपना समझकर मित्रवत सलाह दी,इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद.....
nice
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