बुधवार, 1 जुलाई 2009

" सफर के बीच"




"सफर के बीच "


जब-जब थक जाईए ,

रूकइए सुस्ताइए ,

अपनी यादों की छाँव में ,

जरा सोचिये भी सफ़र में ,

क्या -क्या ले निकले थे,

उम्र के इस छोर आने तक ,

क्या खोया क्या पाया ,

इन्सानी रिश्तों को कौन

सहेज सका , कितना इनको,

मैं खुद भी जी पाया ,

गोया कि सफ़र अभी है बाकी|







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4 टिप्पणियाँ:

निर्मला कपिला 2 जुलाई 2009 को 7:30 am बजे  

ेक सीख देती सार्थक कविताजरा सोचिये भी सफ़र में ,

क्या -क्या ले निकले थे,

उम्र के इस छोर आने तक ,

क्या खोया क्या पाया ,
इस सुन्दर सार्थक कविता के लिये धन्यवाद्

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' 2 जुलाई 2009 को 8:40 am बजे  

रचना अच्छी लगी....बहुत बहुत बधाई।

ज्योति सिंह 6 जुलाई 2009 को 11:29 pm बजे  

दो तीन दिन से लगातार ३-४ टिपण्णी लिख चुकी पोस्ट करते समय मिट जाता है मन तो ख़राब हुआ मगर आशावादी बन कोशिश जारी रही .इतनी लम्बी टिपण्णी लिखी रही मगर गड़बड़ होने की वज़ह से अब चंद शब्दों में काम चला रही हूँ .आपकी सभी रचना पढ़ी बहुत सुन्दर है .निंदक नियरे ......इस दोहा के सम्बन्ध में यही कहूँगी कि जिसका धयान रखते ,जिसके हित के बारे में सोंचते है उसे ही सही राह कि सलाह देते है .किसी के हित के लिए सोचना कहना कुछ गलत नहीं होता .इससे तो हमें बेहतर बनने का मौका मिलता है .आप ब्लॉग पे आये बहुत ही अच्छा लगा .नमस्कार .

स्वप्न मञ्जूषा 17 जुलाई 2009 को 9:29 pm बजे  

आपकी यह कविता, सचमुच सोचने को प्रेरित करती है..
उम्र का कोई भी पड़ाव हो मूल्यांकन करते ही रहना चाहिए की क्या खोया, क्या पाया..
थोडा रुकें, सोचे, और जो भी बचा है समेटते हुए बाकि का सफ़र तय करें...आगे बढें..
अंत में बस इतना ही रहेगा..
बहुत अच्छा/अच्छी इंसान था/थी
या फिर..
चलो जी अच्छा हुआ..

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TRASLATE

Translation

" उन्मुक्त हो जायें "



हर व्यक्ति अपने मन के ' गुबारों 'से घुट रहा है ,पढ़े लिखे लोगों के लिए ब्लॉग एक अच्छा माध्यम उपलब्ध है
और जब से इन्टरनेट सेवाएं सस्ती एवं सर्व - सुलभ हुई और मिडिया में सेलीब्रिटिज के ब्लोग्स का जिक्र होना शुरू हुआ यह क्रेज और बढा है हो सकता हैं कल हमें मालूम हो कि इंटरनेट की ओर लोगों को आकर्षित करने हेतु यह एक पब्लिसिटी का शोशा मात्र था |

हर एक मन कविमन होता है , हर एक के अन्दर एक कथाकार या किस्सागो छुपा होता है | हर व्यक्ति एक अच्छा समालोचक होता है \और सभी अपने इर्दगिर्द एक रहस्यात्मक आभा-मंडल देखना चाहतें हैं ||
एक व्यक्तिगत सवाल ? इमानदार जवाब चाहूँगा :- क्या आप सदैव अपनी इंटीलेक्चुएलटीज या गुरुडम लादे लादे थकते नहीं ?

क्या आप का मन कभी किसी भी व्यवस्था के लिए खीज कर नहीं कहता
............................................

"उतार फेंक अपने तन मन पे ओढे सारे भार ,
नीचे हो हरी धरती ,ऊपर अनंत नीला आकाश,
भर सीने में सुबू की महकती शबनमी हवाएं ,
जोर-जोर से चिल्लाएं " हे हो , हे हो ,हे हो ",
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
फिर सुनते रहें गूंज अनुगूँज और प्रति गूंज||"

मेरा तो करता है : और मैं कर भी डालता हूँ

इसे अवश्य पढें " धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर " और पढ़ कर अपनी शंकाएँ उठायें ;
इस के साथ कुछ और भी है पर है सारगर्भित
बीच में एक लम्बा अरसा अव्यवस्थित रहा , परिवार में और खानदान में कई मौतें देखीं कई दोस्त खो दिये ;बस किसी तरीके से सम्हलने की जद्दोजहद जारी है देखें :---
" शब्द नित्य है या अनित्य?? "
बताईयेगा कितना सफल रहा |
हाँ मेरे सवाल का ज़वाब यदि आप खुले - आम देना न चाहें तो मेरे इ -मेल पर दे सकते है , ,पर दें जरुर !!!!



कदमों के निशां

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