रविवार, 14 दिसंबर 2008

रात यूं वीरान अँधेरी है

"ये खामोशी जीने दो "
शुक्र खुदा ' हर रात यूं वीरान अँधेरी है ',
कहते है दर्द से दर्द को राह सुकूँ होती है !

सिसकियाँ दूर तक सुनी जाती हैं विरानो में ,
श्श्श्श....रात को अपनी ये खामोशी जीने दो !

हर गम ए दिल के दर्द ए गम को राह पाने दो ,
न हो नासूर हर घाव,हर ज़िन्दगी आतिश-फशां !

पर रोते चेहरे भी हों न जाएँ रुसवा ,बेगानों में ,
इसी लिए हर रात वीरानी है हर रात अँधेरी है !!!

श्श्श्श....रात को अपनी ये खामोशी जीने दो !
[ आतिश -फशां = ज्वालामुखी = volcano]

4 टिप्पणियाँ:

Abhishek Ojha 15 दिसंबर 2008 को 5:22 pm बजे  

ये वीरानी खामोशी का अपना ही एक शुकून है !

रंजीत/ Ranjit 24 दिसंबर 2008 को 1:34 pm बजे  

बहुत खूब. दर्द कहाँ कम है , ये रात ही कम पड़ जाती है अक्सर

Ashok Chakradhar 30 दिसंबर 2008 को 6:37 pm बजे  

द्विवेदी जी की जय हो! रात की वीरानी में रात की रानी मिले। कविता के रूप में, कल्पना के रूप में या फ़िर सिर्फ़ रूप में।
शुभकामनाएं
लवस्कार

डॉ .अनुराग 12 जनवरी 2009 को 6:43 pm बजे  

पर रोते चेहरे भी हों न जाएँ रुसवा ,बेगानों में ,
इसी लिए हर रात वीरानी है हर रात अँधेरी है !!!

bahut khoob.....

" रोमन[अंग्रेजी]मेंहिन्दी-उच्चारण टाइप करें: नागरी हिन्दी प्राप्त कर कॉपी-पेस्ट करें "

"रोमन[अंग्रेजी]मेंहिन्दी-उच्चारण टाइप करें:नागरी हिन्दी प्राप्त कर कॉपी-पेस्ट करें"

विजेट आपके ब्लॉग पर

TRASLATE

Translation

" उन्मुक्त हो जायें "



हर व्यक्ति अपने मन के ' गुबारों 'से घुट रहा है ,पढ़े लिखे लोगों के लिए ब्लॉग एक अच्छा माध्यम उपलब्ध है
और जब से इन्टरनेट सेवाएं सस्ती एवं सर्व - सुलभ हुई और मिडिया में सेलीब्रिटिज के ब्लोग्स का जिक्र होना शुरू हुआ यह क्रेज और बढा है हो सकता हैं कल हमें मालूम हो कि इंटरनेट की ओर लोगों को आकर्षित करने हेतु यह एक पब्लिसिटी का शोशा मात्र था |

हर एक मन कविमन होता है , हर एक के अन्दर एक कथाकार या किस्सागो छुपा होता है | हर व्यक्ति एक अच्छा समालोचक होता है \और सभी अपने इर्दगिर्द एक रहस्यात्मक आभा-मंडल देखना चाहतें हैं ||
एक व्यक्तिगत सवाल ? इमानदार जवाब चाहूँगा :- क्या आप सदैव अपनी इंटीलेक्चुएलटीज या गुरुडम लादे लादे थकते नहीं ?

क्या आप का मन कभी किसी भी व्यवस्था के लिए खीज कर नहीं कहता
............................................

"उतार फेंक अपने तन मन पे ओढे सारे भार ,
नीचे हो हरी धरती ,ऊपर अनंत नीला आकाश,
भर सीने में सुबू की महकती शबनमी हवाएं ,
जोर-जोर से चिल्लाएं " हे हो , हे हो ,हे हो ",
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
फिर सुनते रहें गूंज अनुगूँज और प्रति गूंज||"

मेरा तो करता है : और मैं कर भी डालता हूँ

इसे अवश्य पढें " धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर " और पढ़ कर अपनी शंकाएँ उठायें ;
इस के साथ कुछ और भी है पर है सारगर्भित
बीच में एक लम्बा अरसा अव्यवस्थित रहा , परिवार में और खानदान में कई मौतें देखीं कई दोस्त खो दिये ;बस किसी तरीके से सम्हलने की जद्दोजहद जारी है देखें :---
" शब्द नित्य है या अनित्य?? "
बताईयेगा कितना सफल रहा |
हाँ मेरे सवाल का ज़वाब यदि आप खुले - आम देना न चाहें तो मेरे इ -मेल पर दे सकते है , ,पर दें जरुर !!!!



ताज़ा टिप्पणियां

कदमों के निशां

  © Blogger templates The Professional Template by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP